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“हमारी भस्मासुरी जीवन शैली और पालीथीन में घुटती पृथ्वी “

LOTUS......
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polythene-worldप्रथम विश्व पर्यावरण सम्मेलन 1972 से आज़ वर्ष 2013 तक पर्यावरण की सुरक्षा का मुद्दा निरंतर गंभीर ही होता जा रहा है। हमारी अति आरामतलब जीवन शैली का यही हाल रहा तो स्थिति कत्तई सुधरने वाली नहीं है। एक तरफ तो हम कभी विकास तो कभी आवश्यकता के नाम पर वृक्षों की अंधाधुंध कटाई करते है फिर बढ़ती गर्मी का उपायफ्रिज़ व एसी जैसी कृत्तिमताओं  मे तलाशते हैं। उसके बाद जब इनसे होने वाले दुष्प्रभावों का पता चलता है तो ग्रीन हाउस गैसों एवं ओज़ोन क्षरण की विकरालता पर औपचारिक शोक मना कर प्रकृति के प्रति अपनी संवेदनशीलता का कोरम पूरा कर लेते हैं। ईमानदारी से देखा जाय तो पर्यावरण के प्रति हमारी जागरूकता हमारे बच्चों के स्कूल कम्पटीशन मे स्थान पाने तक ही सिमटी हुई है। हम में से अधिकांश घर से बाहर जाते समय शॉपिंग बैग्स ले जाना पसंद नहीं करते और शॉपिंग के बाद नामी गिरामी कम्पनियों के प्लास्टिक थैले सगर्व घर ले आते हैं। उसके बाद भले ही घर में पालीथीन थैलों का अंबार लग जाये पर दोबारा भी हमें नया पलास्टिक बैग ही कैरी करना होता है। पालीथीन बैग्स के प्रति हमारा यह अनावश्यक मोह पर्यावरण को बहुत ही ज्यादा भारी पड़ रहा है। पालीथीन मानव एवं अन्य जीवों के साथ ही भूमि व जल के लिये भी घातक है। इसके दहन से निकलने वाली डी आक्सिन गैस से मनुष्य को कैंसर भी हो सकता है। सस्ते पॉलीथिन का प्रयोग स्वास्थ्य के लिये और भी हानिकारक है। इसमे कई प्रकार के हानिकारक रसायन होते हैं। सार्वजनिक रूप से फेंके जाने पर इन्हें खाकर जानवरों की मृत्यु हो जाती है। प्रत्येक वर्ष विश्व में 500 बिलियन पालीथीन बैग्स का प्रयोग हो रहा है। प्रति मिनट करीब एक लाख पालीथीन बैग्स का प्रयोग हो रहा है, जो पर्यावरण को काफी नुकसान हो रहा है। चिन्तनीय यह भी है कि भारत में ही इसका खपत प्रतिशत सबसे ज्यादा है। सामान्यतः पालीएथिलीन से बैग्स बने है जिनकी रिसाइक्लिंग काफी महंगी है। ये बैग्स नॉन बायोडीग्रेडिबल हैं। इनके प्रकृतिक रूप से नष्ट होने में लगभग एक लाख वर्ष का समय लगता है। यूएस की एक पर्यावरण एजेन्सी द्वारा कराये गये सर्वेक्षण बताते हैं कि इनके प्रकृतिक रूप से नष्ट होने में लगभग एक लाख वर्ष का समय लगता है। विश्व में मात्र एक प्रतिशत पालीथीन बैग्स की ही रिसाइक्लिंग हो पाती है। एक टन की रिसाइक्लिंग से 11 बैरेल तेल के बराबर उर्जा बचाई जा सकती है। हमें अपने पर्यावरण और स्वयं के दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए पालीथीन के प्रयोग पर अविलंब लगंलगानी होगी अन्यथा हमारी भस्मासुरी जीवन शैली हमें बहुत ही महंगी पड़ने वाली है इनके प्रकृतिक रूप से नष्ट होने में लगभग एक लाख वर्ष का समय लगता है। यूएस की एक पर्यावरण एजेन्सी द्वारा कराये गये सर्वेक्षण बताते हैं कि विश्व में मात्र एक प्रतिशत पालीथीन बैग्स की ही रिसाइक्लिंग हो पाती है। एक टन की रिसाइक्लिंग से 11 बैरेल तेल के बराबर उर्जा बचाई जा सकती है। हमें अपने पर्यावरण और स्वयं के दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए पालीथीन के प्रयोग पर अविलंब लगाम लगानी होगी अन्यथा हमारी भस्मासुरी जीवन शैली हमें बहुत ही महंगी पड़ने वाली है इसके लिये सरकार और समाजसेवियों के सहारे ही नहीं रहा जा सकता।

हम सभी को व्यक्तिगत रूप से भी अपने कर्तव्यों को समझना होगा। प्रदूषण की समस्या का मूल कारण भी हमारी आधुनिक जीवन शैली है जबकि प्राचीन भारतीय दैनिक चर्या में तो प्रकृति की वंदना का अपना महत्त्व था। वृक्ष यूँ ही वन्दनीय नहीं समझे जाते थे। तुलसी का अस्तित्व इसलिए भी शुभ माना जाता था क्योंकि इस पोधे के नीचे दिया जलने की क्रिया से वायुमंडल में ओजोन गैस का घनत्व बढ़ता है। नीम की पत्तियां शीतलता प्रदान करती है और इसके औषधीय प्रयोगों से तो सभी वाकिफ हैं। पीपल की पत्तियां कार्बन डाई आक्साइड का अवशोषण करती हैं। सूर्य की उपासना भी उसकी किरणों के औषधीय प्रभाव के कारण ही की जाती थी। धरती जो  भोजन एवं निवास उपलब्ध कराती है उसे माँ की उपमा अनायास ही नहीं दी गयी थी। पृथ्वी, सूर्य, वृक्षों, जल एवं वायु के महत्त्व को जन साधारण भी समझे इसलिए उसे देवता की संज्ञा दी गयी थी। वैदिक  शांति पाठ में भी पृथ्वी से लेकर अंतरिक्ष की शांति की प्रार्थना पर्यावरण संरक्षण के निमित्त ही की गई है पर विकास और आधुनिकता की अंधी गलियों में हमने अपने प्राचीन पर्यावरणीय संस्कारों को बिना उनका औचित्य समझे ही तिलांजलि दे डाली। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय घोषणा पत्र या सरकारी योजनायें अपनी जगह हैं पर हमें निजी स्तर पर पर्यावरण जागरूकता को अभियान की तरह न ले कर पहले की तरह ही  दैनिक जीवन चर्या का सहज अंग बनाना होगा मसलन व्यक्तिगत रूप से पालीथीन  का उपयोग न्यूनतम कर दिया जाय।

वृक्षारोपण के मामले में यदि हम राजस्थान के पिपलंत्री गाँव की भांति कन्या शिशु के जन्म पर 111  वृक्ष न भी लगा सकें पर कम से कम अपने-2 जन्मदिन एवं  परिवार में पड़ने वाले शुभ अवसरों पर एक एक पौधा तो लगा ही सकते हैं। मित्रों को भी इसके लिए प्रोत्साहित कर सकतें हैं। इस प्रकार इन छोटे-2 प्रयासों से भी हम पर्यावरण संरक्षण का बड़ा प्रयास कर सकते हैं पर हाँ! ये प्रयास ईमानदारी पूर्वक  निरंतर होने चाहिए। आइये! गुरुदेव रवीन्द्र नाथ की इन पंक्तियों को साकार करने में हम भी अपने कदम बढ़ाये- आइये! गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर की लिखी पंक्तियाँ हम सब मिलकर साकार करें- “देश की माटी, देश का जल, सरस बने प्रभु सरस बनें  बनें “.

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