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“उन सहयोगी हाथों को सलाम जिन्होंने एक महिला को पहचान दिलाई”

LOTUS......
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(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष)
8 मार्च 1917 से उददभूत अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस आज वर्ष 2012 में अपने 95 वे सोपान पर है पर इन पंचानबे वर्षों में हमारी मानसिकता ज़रा भी नहीं बदल सकी. वास्तव में यह दिवस उन महिलाओं को समर्पित था जो अपने घर की जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वहन करते हुए बाहर की दुनिया में भी अपनी काबिलियत का लोहा मनवा रही थीं . दोहरी भूमिका निभाने वाली ऐसी महिलाएं वाकई सम्मान की पात्र हैं . स्वयं अपने देश में भी कादम्बिनी गांगुली से ले किरण बेदी तक की श्रृंखला में असंख्य नामों ने स्थानीय से ले कर राष्ट्रीय – अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है पर विडम्बना यह रही कि हमने उन सहयोगी हाथों को नज़रन्दाज कर दिया जो इन सफल महिलाओं का आधार थे.हर सफल महिला के पीछे किसी ना किसी गृहणी का अथक परिश्रम पूर्ण सहयोग व समर्थन अवश्य ही रहता है ,चाहे वो माँ के रूप में हो , या बहन , भाभी ,सास या कोई अन्य ! संतानोत्पत्ति सृष्टि का अनिवार्य नियम है और यह महत्वपूर्ण कार्य प्रकृति ने महिलाओं को सौपा है.एक शिशु को जन्म देना , उसका समुचित पालन पोषण और साथ में बाहरी दुनिया अपने अस्तित्व को स्थापित करना यह सरे कार्य किये ही नहीं जा सकते.जब कोई महिला आर्थिक रूप से सशक्त होती है तो उसकी प्रशंसा तो की जाती है पर उन सहयोगी हाथों को भुला दिया जाता है जिन्होंने उस सफल महिला सहयोग किया.
यद्यपि हमारी भारतीय परंपरा में ऐसा बिलकुल नहीं था .हमारे यहाँ तो नींव की ईंट के पूजन का भी विधान है पर पाश्चात्य संस्कृति प्रदत्त आधुनिकता ने हमारी दृष्टि सिर्फ भवन की चोटी तक ही सीमित कर दी. आज हालत यह हैं की जनगणना 2011 में घरेलु महिलाओं को उस गैर उत्पादक श्रेणी में रख दिया गया जिसमें उनके अतिरिक्त मात्र भिखारी और वेश्याएं ही आतें है. उस से भी दुखद यह की किसी ने भी इसका यथोचित प्रतिवाद नहीं किया. क्या वह माँ………..जिसने अपनी शिक्षा,अपनी समस्त उर्जा को अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य में ही नियोजित करना उचित समझा वह आज “गैर उत्पादक ” मात्र है? एक पत्नी जिसने अपने पति व परिवार का भरपूर ख्याल रखने के लिए अपने करियर का बलिदान कर दिया ……..हमने उसके इस त्याग का पुरस्कार उसे भिखारियों और वेश्याओं के साथ श्रेणीबद्ध कर के दिया है.
आज ‘अर्थ’ इतना प्रधान हो गया है कि हम अपने इतने महत्वपूर्ण रिश्तों को उत्पादक/अनुत्पादक के रूप में ही देखेंगे? आप ने जब ठीक से बोलना भी नहीं सीखा था तब भी और आज जब आप बड़ी बड़ी बातें छुपाने लायक हो गएँ है तब भी ……………एक माँ हमेशा ही आपकी बातें बिना कहे ही समझ जाती है . जब दुनिया जहान कि टेंशन – फ्रस्टेशन आप उस से अनायास ही लड़ के निकालते हैं तब भी वह धैर्यपूर्वक आपको समझती है.ऐसी माँ का आप के जीवन में कोई योगदान नहीं महज इसलिए कि वह ‘कमाऊ’ नहीं है ? एक पत्नी जो बहार से आकर आप के घर संसार को अपने प्रेम, सहयोग एवं समर्पण से सुसज्जित कर रही है उसकी भावनाओं का कोई मोल नहीं? यदि आपकी माँ और पत्नी आप से संतुष्ट नहीं है तो आपकी सफलता अधूरी है तो इस लिहाज से वे महत्वपूर्ण तो हुई हीं ! सोचिये…………………………………………………………………………………………………………
ये बस उन्हीं के अस्तित्व का मुद्दा नहीं बल्कि आपके भी स्वाभिमान का प्रश्न है .”आर्थिकता” ही प्रत्येक स्थान पर मापदंड नहीं हो सकती. भारत जैसे सांस्कृतिक देश में त्याग….सहयोग…समर्पण का भी बहुत मूल्य है.

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