प्रेम सिर्फ दो व्यक्तियों के बीच की ही भावना भर नहीं ,प्रेम तो एक ऐसी भावना है जिसकी सुगंध अनंत है ,जो व्यक्ति ,समाज और समय की परिधि से भी परे है ,इसी भाव को व्यक्त करती एक कथा………………….. यह कहानी है प्राचीन भारत की एक महत्वपूर्ण रियासत वीरपुर की! जब भारत वर्ष एक मुग़ल आक्रान्ता अफजल बिन कासिम के हमलों से त्रस्त और नष्ट हो रहा था . वहीँ वीरपुर इन सबसे दूर राजकुमारी भारती और सेनापति के तेजस्वी पुत्र जय पर प्रेम के देवता अपनी कृपा बरसा रहे थे .राजकुमारी भारती के प्रेम संबंधों के विषय में पता चलते ही वीरपुर के महाराज विक्रम प्रताप सिंह ने उसके प्रेमी से ही प्रसन्नता पूर्वक उसका विवाह करा देने का निश्चय कर लिए था . प्रसन्न होते भी क्यूँ न ….आखिर अपने सेनापति के होनहार और प्रतापी पुत्र जय को वे स्वयं भी बहुत मानते थे . सब कुछ कितनी सुन्दरता से चल रहा था ,जय और भारती को तो मानो स्वर्ग ही मिल गया था .पर मानस की एक पंक्ति है …..होइहें वही जो राम रचि राखा ……….जय और भारती के प्रेम को भी नियति की नज़र लग गई और ऐसी लगी कि सम्पूर्ण वीरपुर भी हिल गया. बिन कासिम की क्रूर दृष्टि के घेरे में वीरपुर पहले सी ही था पर यहाँ की संगठित जनता और सेना के कारण कासिम के लिए वीरपुर का दुर्ग अभी तक अभेद्य ही था .जय भारती के सगाई का उत्सव था .सभी ख़ुशी के जश्न में डूबे हुए थे तभी भीड़ को चीरता हुआ एक घुड़सवार अपनी सेना के साथ वहां आ धमका और घोषणा की कि वीरपुर को हमने अपने कब्जे में ले लिया है .सेनापति,प्रधानमंत्री सहित महाराज विक्रम को बंदी बना लिया गया .पर सबसे ज्यादा आश्चर्य वाली बात तो तब हुई जब महारानी कनकलता को बिन कासिम ने अपना प्रतिनिधि नियुक्त करते हुए वहा से प्रस्थान किया .राजा महारानी के इस विद्रोही और महत्वाकान्छी स्वाभाव से परिचित तो थे पर इस रूप में महारानी को देखना बर्दाश्त न कर सके और अगले ही दिन हृदयाघात के कारण चल बसे . अब बिन कासिम की क्रूर दृष्टि राजकुमारी भारती पर थी .महारानी को अनपी सौतेली पुत्री से कभी विशेष लगाव न रहा .अतः वो तुरंत तैयार हो गयी .राजकुमारी सहायता के लिए जय के पास गयी किन्तु जय का तो उस पर से विश्वास ही उठ चूका था …………………………………………. “मैं कैसे मान लूँ की तुम्हे अपनी मन के षड्यंत्रों की ज़रा भी भनक नहीं हुई?क्या प्रमाण है की तुम भी अपनी माँ के साथ इन सब में शामिल नहीं हो?” “जय मेरा विश्वास कीजिये ! मैं आपसे ही प्रेम करती हूँ” राजकुमारी ने जय को समझाने की कोशिश की.पर ………….. “भारती तुमसे प्रेम करने से पूर्व मैं अपने पिता और अपनी मातृभूमि से प्रेम करता हूँ ,और उनकी ऐसी हालत देख कर तुम्हारे लिए अब मेरे मन में कोई प्रेम बाकी नहीं है चली जाओ यहाँ से अपनी माँ के पास ,मैंने कभी तुमसे प्रेम किया था ,सो तुम्हे मैं मारना नहीं चाहता पर भारती मेरे धैर्य की परीक्छा मत लो! “……………………………………….. भारती हतप्रभ रह गई ,पिता संसार से चले गए ,माँ मातृभूमि के शत्रुओं से जा मिली और तो और उसका प्रेम ,उसका जय उसे भी दोषी समझता है ! भारती कुछ पल मौन रही फिर किसी अग्नि की ज्वाला के समान धधकती हुई बिन कासिम के पास पहुंची और उससे एकांत में बात करने की इक्छा प्रकट की . कासिम फ़ौरन मान गया .”ए बेपनाह खूबसूरती की मल्लिका ! कहो क्या कहना चाहती हो ?” मुस्कुराते हुए भारती ने धीमे स्वर में कहा “मुझे आपका प्रस्ताव स्वीकार है पर मेरी कुछ शर्तें हैं ,जिन्हें आपको मानने में कोइ परेशानी नहीं होगी ” “क्या शर्तें हैं?” “पहली कि आप वीरपुर कि महारानी मुझे घोषित कीजिये ,दूसरी कि आप महारानी कनकलता को मुझे एक बंदी के रूप में सौंप दीजिये और तीसरी शर्त ये है कि मैं आज से ठीक पन्द्रहवें दिन आपसे विवाह करना चाहूंगी क्योंकि पंद्रहवे दिन मेरा जन्मदिन है यदि आपने मेरी किसी भी शर्त को मानने से इंकार किया तो मैं आत्मदाह कर लुंगी पर आपके हाथ नहीं आउंगी ! ” कासिम ने सारी शर्तें तुरंत मान लीं .भारती के समक्छ महारानी कनकलता को बंदी बना कर ले आया गया और वही भारती को वीरपुर की महारानी घोषित कर दिया गया . ठीक दो दिन बाद भारती अर्धरात्रि के समय बिन कासिम के पास गयी और उससे कहा कि “मैं चाहती हूँ कि हमारा विवाह कल सुबह ही हो जाये क्योंकि कनकलता या यहाँ के अन्य किसी का कोई भरोसा नहीं पता नहीं कब कौन नई चाल खेल जाये ! ” कासिम इस पर भी सहर्ष तैयार हो गया और ख़ुशी से बोला “भारती तुम जो चाहो मुझसे मांग लेना मैं तुम्हे अपनी जीती हिन्दुस्तान की सारी रियासते देने को तैयार हूँ !” ” क्या मुझे आज रात आपको अपने हाथो से बना पान खिलने की इजाजत मिलेगी? ” “ये तो तुम्हारा हक़ है मल्लिका ए कासिम! जाओ पान बना के ले आओ !” राजकुमारी भारती ने अपने हाथों से बने एक नहीं बल्कि वो दस पान कासिम को खिला दिए जिनमे भयंकर सर्प विष मिला था . कासिम एक बार जो बिस्तर पे गिरा फिर उठ न सका . राजकुमारी ने अपने अंग रक्छकों से उसी समय वीरपुर की जनता को एकत्र करने का आदेश दिया .साथ ही प्रधानमंत्री और सेनापति को भी ससम्मान दरबार में बुलाया गया . जय भी वहां उपस्थित था . भारती ने सभा को संबोधित करने शुरू किया————- ” आपकी बेटी भारती ने आप सब के साथ हुए अन्यायों का बदला ले लिया है ,अफजल बिन कासिम मारा जा चुका है और महारानी कनकलता को आजीवन कैद में डाल दिया गया है .वीरपुर यहाँ के रहने वालों का ही रहेगा कोई बाहरी हम पर शासन कदापि नहीं कर सकता ! आपके राजा का चुनाव मैं राज्यभक्त प्रधानमंत्री और सेनापति पर छोड़ रही हूँ वे जिसे भी राजा बनायेंगे वो उपयुक्त व्यक्ति ही होगा !” “वीरपुर की शत्रुओं से रक्छा तुमने की है इसलिए इस पर शासन का अधिकार भी तुम्हारा ही है.” प्रधानमंत्री जी से सभी सहमत थे. पर राजकुमारी को जैसे कोइ और ही धुन सवार थी ! जय को उसे अलग से सम्म्झाने के लिए भेजा गया पर भारती का जवाब था…………… “प्रेम सिर्फ तुमने ही नहीं किया था जय ! मैंने भी किया था पर उस प्रेम की परीक्छा तो तभी हो गयी थी जब तुमने मुझ पे अपने प्रेम पे अविश्वास किया था सो अब तुम्हारे लिए मेरे मान में कोई भावना शेष ही नहीं है ,एक बात और मैं भी अपनी मातृभूमि से बढ़कर किसी से प्रेम नहीं करती वरना तुम्हे मुझ पर विश्वास न करने की भी सजा मिलती पर मैं जानती हूँ की तुन्हारे जैसे वीर पुरुष की वीरपुर को ज़रूरत है अतः मैं तुम्हे छमा कर रही हूँ ” ऐसा कहकर राजकुमारी ने प्रधानमंती और सेनापति का चरणस्पर्श किया ,जनता को अभिवादन किया और अपने घोड़े पे बैठ के कहा चली गयी ,कोई जान नहीं सका. सर्वसम्मति से जय को राजा नियुक्त किया गया .जय ने भारती के प्रेम में आजीवन विवाह नहीं किया और उसकी स्मृति में एक उद्यान बनवाया .कई सदियाँ बीत गयीं . वीरपुर में कई राजा आये और गए पर एक चीज वहां शास्वत है और वो है भारती के प्रति जनता का प्यार .उस उद्यान को मंदिर में बदल दिया गया और भारती अब वीरपुर में प्रेम और स्वतंत्रता की देवी के रूप में पूजी जाती है . भारती अमर ही गई साथ ही वो प्रेम भी अमर हो गया जो जनता ने उसे उसके देशप्रेम के बदले दिया .
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