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इस बार सोचा की कुछ क्रन्तिकारी सा लिखूं.ऐसा कुछ लिखूं जो सबको हिला दे ,कुछ सोचने पर मजबूर कर दे, पर क्या —
भ्रस्टाचार?…कश्मीर समस्या?…..अयोध्या का मुद्दा ?…..मंहगाई ?….भारत की विदेश निति पर लिखूं…..या फिर कुछ और? फिर मुझे लगा महिलाओं पर ही लिखा जाये क्यूँ कि देखा जाये तो एक औरत का अपना स्वयं का जीवन भी तो किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है .एक छोटी सी बच्ची से लेकर युवा महिला ,प्रौढ़ा ,वृद्धा ….सभी कि अपनी चुनौतियां हैं .जो अनंत कल से आज भी बनी हुई हैं . 15 अगस्त १९४७ को भारतवर्ष को स्वतंत्रता मिली पर हम औरतें आज भी आज़ाद नहीं हो सकीं!
१०-१५ साल की होते होते एक आम भारतीय किशोरी और किशोर दोनों की जीवनशैली अलग होने लगती है एक ओर जहाँ किशोर केवल पढाई और मस्ती में ही जीते हैं वहीँ किशोरिओं की आगामी समय के लिए ट्रेनिग शुरू हो जाती है गृहकार्य .साज सज्जा और पढाई में संतुलन कैसे बैठाना है ये भी उन्ही पे छोड़ दिया जाता है मस्ती का नम्बर तो इन सबके बाद ही आता है .तमाम छेड़छाड़ ,शोषण ,उत्पीडन , सब झेलने की शुरुआत भी इसी समय आरम्भ हो जाती है .
फिर आती है युवावस्था ! जहाँ मीडिया ने उन पर सुन्दर बनाने का दबाव बुरी तरह डाल रखा है ,साथ में सुरक्छा की चिंता भी उन्हें ही करनी है, भले ही उनकी गलती हो या न हो!आज़ाद भारत में एक पुरुष तो बेहिचक कही भी ,कभी भी स्वतंत्र घूम सकता है पर क्या महिलाओ के लिए भी ऐसी ही आज़ादी है?घर से निकलते ही नुकड़ वाले चाय वाले से लेकर सड़क के असंख्य छोटे बड़े हर वर्ग के ,हर उम्र के पुरुष एक लड़की को ऐसे घूरते हैं जैसे वो लड़की कोई नुमाइश की वस्तु हो! बस में ,दुकानों में, यहाँ तक की मंदिरों तक की भीड़ में एक लड़की हमेशा ये सोच कर चिंता मुक्त नहीं हो पाती की पता नहीं जाने कब कौन उसे ‘टच’ करता निकल जाये! उस पर से समाज भी लड़कियों को ही हिदायतें देता है कि ठीक से कपडे पहनो ,ज्यादा हंसो मत , वरना किसी दुर्घटना कि शिकार हो सकती हो, मानो ! पुरुषों को यह संवैधानिक हथियार प्राप्त है कि यदि किसी महिला के कपडे या आचरण में कोई कमी पायें तो वे तुरंत बलात्कार ,या यौन शोषण नमक हथियारों से महिलाओं को दण्डित करें! ज्यादातर लड़कियां बड़ी दुर्घटनाओं से भले ही बच जाएँ पर शायद ही कोई लडकी हो जिसने दो चार बार अश्लील टिप्पणियों को न झेला हो.
एक ओर लड़कियां तो अपने करियर में पहले स्थापित होना चाहती हैं क्य्नु की उन्होंने अपनी माँ और सम्कक्छ की पीढ़ी में महिलाओं को घरेलु होने के नाते कहीं उपेक्छित किये जाते देखा!, कहीं दहेज़ की बलि चढ़ते देखा!, तो कहीं अपने पति व ससुराल वालों की बंदी के रूप में जीते देखा! पर उनके माता पिता आज भी उनकी शादी को ही लड़कियों का परम लक्छ्य मान कर उन पर शादी का दबाव डालते हैं .यदि शादी हो गई तो नए परिवार को खुश रखने का पूरा ज़िम्मा उस नई बहु पर ही होता है उसकी इक्च्छा को तक पे रख कर ,उसके सपने पहले माता पिता तय करते थे अब ससुराल वाले तय करेंगे! यदि बच्चे हो जाएँ तो उनकी परवरिश भी माँ कि ही ज़िम्मेदारी होती है .इस वक़्त भी एक माँ ही अपने करियर को दांव पे लगाती ही . कितना बड़ा विरोधाभास है कि बच्चे कुछ भी अच्चा करें तो पिता का नाम ऊँचा हो और गलत करें तो सारा दोष माँ का? क्य्नु?
…………………………..इसके आगे भी वर्णन करने के लिए काफी कुछ है पर कितना किया जाय.उपर्युक्त वर्णन इतना बताने के लिए पर्याप्त है कि नारी जीवन स्वयं किसी क्रांति से कम नहीं ,यह एक असीमित चुनौतियों का संसार है इसका सामना कुछ महिलाऐं हंस कर करती है कुछ रो कर …..पर सामना तो सब करती हैं . समाज की, घरवालों की ,एवं आसपास के तनाव की हज़ार बंदिशें झेलती भारत की आधी आबादी आज भी आज़ादी की राह देख रही है ….जाने कब मिलेगी?
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